Thursday, 21 February 2013

बचपना


सुनहरी ज़ीस्त के साए में सोया जागता सा वो,
पिघलते जिस्म के ज़र्रों का दर्पण माँगता सा वो.

वो है खुश बस इसी में लोग जो खुश हैं,
किसी आरास्ता बचपन के दामन बाँधता सा वो.

यह गाफिल लोग क्या समझें खुशी किस गम से पैदा है,
कि अपनी आरज़ू में गैर को पहचानता सा वो.

वो है बचपन का हामी बचपनो में ही वो ज़िंदा है,
किसी की ग़लतियो को बचपना ही मानता सा वो.

-'ख़याल'

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